ये नहीं है मेरी बरेली
जहाँ हाथ में धर्मं का है छूरा
मन में अंधविश्वास की छाया
आदमी-आदमी को मार रहा
ना कोई मोह ना कोई माया
मानवता के हो गए टुकड़े टुकड़े
हर टुकड़े पर घाव बेसुमार
जल रहे हैं घर एक-एक कर के
सपने थे जिसमें दस हजार
फफक-फफक कर रो रहा
वह मंदिर और मस्जिद में
भूल हो गयी थी उससे
जो बना दिया इन्सान
फफक-फफक कर रो रहा
ReplyDeleteवह मंदिर और मस्जिद में
भूल हो गयी थी उससे
क्यों बना दिया इन्सान
बहुत भाव पुर्ण कविता, आज के हालात पर सटीक
मार्मिक!!
ReplyDeleteकाश!! धर्म के नाम पर सियासत करने वाले और दंगे भड़काने वाले इस पीड़ा को समझें.
बहुत सुन्दर और मार्मिक रचना!
ReplyDeleteभारतीय नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!
ये नहीं है मेरी बरेली
ReplyDeleteजहाँ हाथ में धर्मं का है छूरा
मन में अंधविश्वास की छाया
आदमी-आदमी को मार रहा
ना कोई मोह ना कोई माया
वाह!!!! क्या संवेदनशील रचना आपकी!!
sabhi ko भारतीय नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!
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