Saturday, March 13, 2010

खंजर....समुन्दर....आग

दिल में उतर कर कहते हो 
दर्द तो नहीं है,
खंजर मार कर कहते हो 
जख्म तो नहीं है,
सिकायत करूँ भी तो किससे करूँ
जज, मुजरिम और महबूब भी तुम्ही निकले 


सांसों को चुराकर कहते हो 
भस्म तो नहीं है,
समुन्दर को छेड़ कर कहते हो 
लहर तो नहीं है,
जज्बात को रखें थाम कर तो कैसे रखें  
मीत, प्रीत और तूफ़ान भी तुम्ही निकले 

सपनों में आकर कहते हो 
प्यार तो नहीं है,
आग पानी में लगा कर कहते हो 
धुवां तो नहीं है,
लुटने से रोकें दिल को तो कैसे रोकें 
चाभी, तिजोरी और मालिक भी तुम्ही निकले

8 comments:

  1. सांसों को चुराकर कहते हो
    भस्म तो नहीं है, (भस्‍म यानी सांसों का थमना ?)

    बहुत सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति, धन्‍यवाद.

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  2. sanjeev ji dhnayabaad...bhasm ka mera matlab sans chali jane ke jism bhasm ban gaya hai...

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  3. लाजवाब लगा पढ़ना आपको ।

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  4. तुम्ही निकले....

    बहुत ही बढ़िया रचना।

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  5. Dipak, Mithilesh, ADA ji aur Vivek sabhi ko thnaks for coming here,

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