खड़ी दोपहरी में देखा था
उसको छत पर......
अम्बार दुःख का झूल रहा था
आँखों में उसके.....
एक हाथ में पानी का कटोरा
दूसरे में उल्झी-अधूरी लकीरें
तन काला कि जैसे सारी धूप
सोख ली हो उसने.....
हाथ-पैर शमसान की लकड़ी की
तरह जल रहे थे....
वस्त्र के नाम आधे तन पर फटा हुआ
जूट का बोरा था...
जिससे वह रह-रह कर पसीना
पोंछ रही थी.....
बालों में मिट्टी का लेप
जगह-जगह ठसा था....
एक पैर छत पर तो दूसरा दिवार पर
नंगे टिका था....
लोग नीचे से पत्थर मारते तो वह पकड़ कर
कटोरे में रख लेती...
बोलती मैं नहीं तुम लोग पागल हो जो खड़ी
दोपहरी में पत्थर मार रहे हो ......
ओह! मार्मिक!
ReplyDeleteसमशान-शमसान कर लिजिये
sudhaar ke liye dhanyawaad
ReplyDeleteबहुत मार्मिक रचना....
ReplyDeleteबोलती मैं नहीं तुम लोग पागल हो जो खड़ी
ReplyDeleteदोपहरी में पत्थर मार रहे हो ......badee hee samvedansheel abhivyakti ! Mai dang hun!
आपकी इस मार्मिक पोस्ट की चर्चा यहाँ भी तो है-
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/2010/04/blog-post_13.html
Dhanyawwad shastri ji......
ReplyDeletebahut hi dard se bhari hai itni samajh is umra me badi baat hai
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