कोठे(चकला) की दीवारों पर लटकता पर्दा
सामने पड़ी लाल रंग की चटाई
याद दिला रही हैं उसको अपने
बीते कल की जुदाई.....
वही रंग है दोनों का जो कभी
देखा था उसने अपने गाँव
के बने घर में......
ढलता जा रहा है उसका भी रंग धीरे-धीरे
लटकते पर्दों के साथ.....
घिस रही है उधडे रंग के
टूटे धागों में......
पहले मन अब तन भी हुआ बेरंग
धीरे-धीरे फूल सा चेहरा
बदल गाया बेल के काँटों में....
उड़ते लाल रंग को देखकर
मन में हर बार वह यही सोचती
इस बार की बोली गाँव में लगी बोली से
थोडा और है कम ......
बहुत सुन्दर!
ReplyDeletevirah ka bahut acha aur naveen chitran...
ReplyDeletehttp://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
बेहतरीन रचना!
ReplyDeleteहमेशा की तरह उम्दा रचना..बधाई.
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