बारिस से भीगा वह मकान कुछ कहने को आतुर है
बारिस के बाद की धूप
उसके उपरी हिस्से को वसीभूत कर रही हैं
पीछे का हिस्सा इमली और बेल की
छाव में आराम कर रहा है
दाहिना कोना अपनी पुरानी याद में खोया है
तो बायां जैसे कुछ बोलना चाहता है
प्रवेश द्वार पर एक पत्थर की शिला है
प्रवेश द्वार पर एक पत्थर की शिला है
जिसपर तिरंगा लहराना चाहता है
बारिस से भीगा वह मकान कुछ कहने को आतुर है
सबकुछ देखा है मैंने
यहीं आजादी की दीवाने आया करते थे
कभी वंदेमातरम तो कभी हिन्दुस्तान हमारा है
के नारे गूजते थे
रक्त की एक-एक बूँद को महसूस किया है मैंने
उधर रसोईं में भोजन पकता था
इधर बैठके में आजादी की कसम ली जाती थी
हिन्दुस्तान हमारा है
हम इसे लेकर रहेंगे
सिचेंगे हम इसे अपने खून से
रक्त का हर कतरा है देश का
देश ही माता और पिता...
गुरु और ईस्वर भी देश,
देश हमें जान से प्यारा है
हिन्दुस्तान हमारा है
हिन्दुस्तान हमारा है
रो रहा हूँ मैं आज अपनी इस हालत पर
कोई नहीं है जो मुझे पूछे, मेरा देखभाल करे
बारिस से भीगा वह मकान कुछ कहने को आतुर है
ये हाल सिर्फ मेरा ही नहीं और भी हैं मेरे साथ बल्कि मुझे लगता है पूरे देश का यही हाल है
मैं नहीं देख सकता और........
मार दो मेरे सीने पर खंजर
मार दो मेरे सीने पर खंजर
बह जाने दो मेरे सारे रक्त को
मिल जाने दो उन दीवानों के रक्त में
मैं और नहीं देख सकता!!!!
मैं और नहीं देख सकता!!!!
मैं और नहीं देख सकता...
बारिस से भीगा वह मकान कुछ कहने को आतुर है
बिलकुल सही लिखा
ReplyDeleteअन्तर्मन की आवाज को प्रकट करती हुई रचना बहुत सुन्दर है!
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