नदी बन गए नाले, जंगल बने कब्रिस्तान
जहाँ लगती थी चौपाल, वहां आज है दूकान
खेत बन रहे सड़क, बाग़ आंबेडकर उद्यान
बैठका भी हुआ खत्म, बस दिख रहे पक्के मकान
हाते में हुआ करते थे बैल ,फसल खलिहान में
बैल पहचानता मालिक, मालिक बैल को
खलियान बना भाषड़, तो हाता खेल का मैदान
और अब ना बैल ना मालिक, ना ही वो पहचान
जन्म पर होता सतियेसा या बरही, मरने पर तेरही
सुख-दुःख भाई या सम्बन्धी, सब अपने लगते
पडोसी होते थे भाई, अजनबी मेहमान
आज बिक गए सारे दो कौड़ी में, रिश्ते हुए लहुलुहान
अपना अपना ना रहा, पडोसी हो गए अन्जान
आधुनिकता के इस दौर में , सब कुछ पीछे छूट गया
समय इतना बदला की, आदमी आदमी को भूल गया
Aaj to bahut achchha likha Tej.. keep it up.. :)
ReplyDeletedard hai
ReplyDeletechutna ka.
आज बिक गए सारे दो कौड़ी में, रिश्ते हुए लहुलुहान
ReplyDeleteअपना अपना ना रहा, पडोसी हो गए अन्जान
बहुत सही लिखा, आज के यही हालात है भारत के.
धन्यवाद
आधुनिकता के इस दौर में ,
ReplyDeleteसब कुछ पीछे छूट गया
समय इतना बदला की,
आदमी आदमी को भूल गया
सुन्दर अभिव्यक्ति!
Bahut hi koobsurt-amita
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