Thursday, April 15, 2010

घिस रही है उधडे रंग के टूटे धागों में..........

कोठे(चकला) की दीवारों पर लटकता पर्दा
सामने पड़ी लाल रंग की चटाई
याद दिला रही हैं उसको अपने
बीते कल की जुदाई.....
वही रंग है दोनों का जो कभी
देखा था उसने अपने गाँव
के बने घर में......
ढलता जा रहा है उसका भी रंग धीरे-धीरे
लटकते पर्दों के साथ.....
घिस रही है उधडे रंग के
टूटे धागों में......
पहले मन अब तन भी हुआ बेरंग
धीरे-धीरे फूल सा चेहरा
बदल गाया बेल के काँटों में....
उड़ते लाल रंग को देखकर 
मन में हर बार वह यही सोचती
इस बार की बोली गाँव में लगी बोली से
थोडा और है कम ......

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