Wednesday, April 14, 2010

सिन्दूर की अभी भी है कमी............

उँगलियों से टटोलती मांग को अपने 
सर पर रखकर हाथ सोंचती 
सिन्दूर की अभी भी है कमी....
निहारती दर्पण को एक टक
फिर रो पड़ती सहसा.....
धूमिल हो जाते सपने आँखों से गिरते 
बूंदों के बदल से.....
कोई ना आया पकड़ने उसका हाथ 
और ना ही पोंछा आसुओं भरी बरसात 
अब तो घर में भी है वह बोझ  
ताने है की पीछा नहीं छोड़ते 
मर जाती तो अच्छा होता...
जाये भी तो कहाँ जाये वह 
किसे पुकारे सुनाये अपना दर्द 
जब घर वाले ही हो गए बेदर्द 
किया क्या है उसने 
शिर्फ एक दाग ही तो सफ़ेद है 
चेहरे पर उसके.....

10 comments:

  1. बहुत मर्मस्पर्शी कविता है आपकी, नारी के व्यथा को व्यक्त कर गई...हमारा समाज आज भी नारी की किसी भी त्रुटि को माफ़ नहीं करता है....फिर वो शरीर पर एक दाग ही क्यूँ न हो...!!
    बहुत सुन्दर...

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  2. bahut khoob sir kitna marmsparshi chitran ek naari ki majboori ka...
    http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

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  3. Ada di ne jo kah diya wahi mera bhi kaha maan lo Tej.. bahut khoob

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  4. ओह!! बहुत गहरी अभिव्यक्ति!

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  5. अतुकांत शैली में लिखी गई रचना बहुत ही प्रभावकारी बन पडी है । नीचे की पंक्ति्यों में एक स्थान पर शिर्फ़ लिखा गया है जो शायद सिर्फ़ होना था ।

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  6. और ना ही पोंछा आसुओं भरी बरसात
    अब तो घर में भी है वह बोझ
    ताने है की पीछा नहीं छोड़ते
    मर जाती तो अच्छा होता
    सच्चाई को बयां करती ये कविता बहुत ही दर्द भरी है

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  7. sabhi logon ko dhanaywaad........Ajai ji sukriya.

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  8. बहुत मार्मिक कविता है ! सुन्दर तरह से आपने अपने भाव को व्यक्त किये हैं !

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  9. stri manodasha ko bahut hi marmikta se darshaya hai.

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  10. बहुत मर्मस्पर्शी कविता है आपकी

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