Tuesday, March 9, 2010

बनते मकान...बन गए हैं श्रृंगार....

बनते मकान में
चल रही है नंगे पैर 
सर पर पत्थर की टोकरी 
नाप रही दोपहरी की धूप 
बहता पसीना, सूखा जिस्म
मन में द्रोपदी सी लज्जा 
आँखों में नमक का समुन्दर 
है ना कोई आस जिंदगी से
ना कोई मंजिल....
बनते मकान में 

बालों में सूखे पत्ते 
पैरों में मिट्टी की पायल 
कमर में लटकती थकान 
हाथों में रस्सी की बेडी
बन गए हैं श्रृंगार...
उसका नहीं ये पहला श्रृंगार
सजी है वो कई बार 
बनाया है उसने कई मकान 
पर कब करुँगी वो श्रृंगार
अपने मकान में, इन 
बनते मकान में


7 comments:

  1. बालों में सूखे पत्ते
    पैरों में मिट्टी की पायल
    कमर में लटकती थकान
    हाथों में रस्सी की बेडी
    बन गए हैं श्रृंगार...

    bahut badhiya bimb ukera hai aapne...
    bahut acchi lagi kavita..

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  2. यही विडंबना है..सुन्दर रचना.

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  3. वाह...!
    इन शृंगारों का क्या कहना?

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  4. बालों में सूखे पत्ते
    पैरों में मिट्टी की पायल
    कमर में लटकती थकान
    हाथों में रस्सी की बेडी
    बन गए हैं श्रृंगार..
    शायद अपना बसेरा उन्हें नसीब नही होगा बस इन्ही बनते मकानो के अन्दर उनके सपने बिखर कर रह जायेंगे अच्छी रचना है धन्यवाद्

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  5. ab is rachna ke liye kahan se shabd laoon?
    ismein "wo todti patthar " ka sa bhav hai aur yahi rachna ki shrshthata hai.

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  6. aap sabhi logon ka धन्यवाद् jo yahan aaye aur mere blog ko pada....

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  7. Vandana ji maine sirf ek choti kosis ki hai Nirala ji ka mukabla kahan ker paunga...

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