Tuesday, March 16, 2010

ये नहीं है मेरी बरेली........

ये नहीं है मेरी बरेली
जहाँ हाथ में धर्मं का है छूरा
मन में अंधविश्वास की छाया
आदमी-आदमी को मार रहा
ना कोई मोह ना कोई माया

मानवता के हो गए टुकड़े टुकड़े
हर टुकड़े पर घाव बेसुमार
जल रहे हैं घर एक-एक कर के 
सपने थे जिसमें दस हजार

फफक-फफक कर रो रहा 
वह मंदिर और मस्जिद में
भूल हो गयी थी उससे
जो बना दिया इन्सान

5 comments:

  1. फफक-फफक कर रो रहा
    वह मंदिर और मस्जिद में
    भूल हो गयी थी उससे
    क्यों बना दिया इन्सान
    बहुत भाव पुर्ण कविता, आज के हालात पर सटीक

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  2. मार्मिक!!


    काश!! धर्म के नाम पर सियासत करने वाले और दंगे भड़काने वाले इस पीड़ा को समझें.

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  3. बहुत सुन्दर और मार्मिक रचना!
    भारतीय नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  4. ये नहीं है मेरी बरेली
    जहाँ हाथ में धर्मं का है छूरा
    मन में अंधविश्वास की छाया
    आदमी-आदमी को मार रहा
    ना कोई मोह ना कोई माया
    वाह!!!! क्या संवेदनशील रचना आपकी!!

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  5. sabhi ko भारतीय नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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