Sunday, February 28, 2010

एक पिचकारी दीपक मशाल को.....

दीपक जी आप ने तो होली की पिचकारी सबको मार दी
लेकिन अब आप की बारी है........
दीपक जी मेरे सीनिअर हैं, हम लोगों ने साथ में MSc. की है 
दिल के बहुत अच्छे हैं, पर कभी कभी थोडा उखड-पकड़ हैं 
ले लिया सबका मजा होली के बहाने, 
और अब खा रहे हैं गुछिया अकेले- अकेले,
हमेशा ब्लॉगिंग में रहते वयस्त, रिसर्च में क्या आप के हाथ खाली हैं,
बुरा ना मानों होली है,
भर गया है कचरा आज आप के ब्लॉग पर 
थोडा साफ़ करो इस होली पर....
पहनायो एक नया वस्त्र अपने ब्लॉग को 
की बुरा ना मनो होली है.....
दीपक जी माफ़ी गुस्ताकी के लिए,
आज आप ही मिले मुझे......
बुरा ना मानों होली है

तेज प्रताप सिंह

Tuesday, February 23, 2010

सखी अबकी हमहूँ खेलब होली,

सखी अबकी हमहूँ खेलब होली
लाल, पिला, गुलाबी सब डारब
आवत हैं पिया...
अबकी नहीं छोड़ब उनका 
पूरे ४ बरस परदेश मां रहली 
सखी अबकी हमहूँ खेलब होली,

अम्मां, बाऊ सब ताकत उनका 
बिटिया तो घरमा नाहीं आवत 
जीजी और देवर बहुत खुश हैली 
सखी अबकी हमहूँ खेलब होली

कहिन रहा अबकी साड़ी देबय तोका
बाहर सिनेमा भी लयीजाब.....
घर में पक्का फर्श भी लगवईली
सखी अबकी हमहूँ खेलब होली

काहे जात पिया परदेश 
दोई पैसा कम मिलत इहाँ
पर घर मां रहत खुशहाली
सखी अबकी हमहूँ खेलब होली

Sunday, February 21, 2010

सकरी गली

उठक पठक से भरी जिंदगी 
सकरी गली में उल्झी जिंदगी  
रोटी  कपडा तक सिमटी जिंदगी 
छोटे में बड़ा पाने की जिंदगी 

एक तरफ कूड़े का कचरा 
तो दूसरी तरफ कटता बकरा
थोड़ी दूर पर है मिठाई की दूकान 
जिसके उपरी मंजिल पर होती है अजान 

आगे है चकला जहाँ मिलती है कमला 
मधुशाला भी दूर नहीं जहाँ टकराती हाला  
बगल दीवारों पर बहता पेशाब बेहिसाब 
जिसपर पान कर रहा अपना हिशाब किताब

भीड़ में गुम नन्हे-मुन्नों की जिंदगी 
बिना कारण इनपर हंसती जिंदगी 
भविष्य का तो इन्हें पता नहीं 
वर्तमान ओड़ कर बैठी है गन्दगी 

सकरी गली सकरी जिंदगी 
बिना पतवार समुन्द्र में बहती जिंदगी 
हर सुबह कीचड़ पोंछती जिंदगी 
हाथ ना लगे बटेर सी जिंदगी 
सकरी गली सकरी जिंदगी

आदमी आदमी को भूल गया

नदी बन गए नाले, जंगल बने कब्रिस्तान
जहाँ लगती थी चौपाल, वहां आज है दूकान
खेत बन रहे सड़क, बाग़ आंबेडकर उद्यान 
बैठका भी हुआ खत्म, बस दिख रहे पक्के मकान 

हाते में हुआ करते थे बैल ,फसल खलिहान में
बैल पहचानता मालिक, मालिक बैल को 
खलियान बना भाषड़, तो हाता खेल का मैदान
और अब ना बैल ना मालिक, ना ही वो पहचान 

जन्म पर होता सतियेसा या बरही, मरने पर तेरही
सुख-दुःख भाई या सम्बन्धी, सब अपने लगते 
पडोसी होते थे भाई, अजनबी मेहमान 
आज बिक गए सारे दो कौड़ी में, रिश्ते हुए लहुलुहान
अपना अपना ना रहा, पडोसी हो गए अन्जान

आधुनिकता के इस दौर में , सब कुछ पीछे छूट गया 
समय इतना बदला की, आदमी आदमी को भूल गया 



Friday, February 19, 2010

होली है होली

होली है होली, होली का मजा लिजीये,
रंग पोतिये, गले मिलिये....
मिटा दीजिये सब दूरियां,
उड़ खड़े हो जाइये इस होली को
मिला लीजिए हाथ.....................
उखाड़ फेंकिये भ्रस्टाचार को
स्थापना कीजिये एक नये समाज की,
जिसमें ना हो कोई उदास और भूखा 
मिले सब को न्याय और सम्मान....
और फिर कहिये.....................
होली है होली, होली का मजा लीजये

स्वित्ज़रलैंड की एक रात

रात के ११:३० बजे थे की मैंने जुरिच (स्वित्ज़रलैंड) की ट्रेन छोड़ी और लौसंने (स्वित्ज़रलैंड) स्टेशन पर उतर गया. पहली बार स्वित्ज़रलैंड घुमने गया था इसलिए मुझे रात में चलने वाली बस के बारें कुछ खास पता नहीं था. मैंने एक व्यक्ति से वहां पे चलनी वाली टैक्सी का नंबर लिया और टैक्सी करके अपने दोस्त के यहाँ जाने लगा.
हाँ जी कहाँ उतरना है आप को (हिन्दी रूपांतरण)
घर का नंबर क्या है ..
मैंने जेब से एक पेपर निकाल कर उसको पता बताया और फिर आराम से बैढ़ गया.
गलती से टैक्सी वाले ने मुझे घर के पीछे वाले रास्ते पर उतार दिया और फिर चलता बना. मैं कुछ देर वहीँ पर खड़ा रहा फिर धीरे-धीरे चलने लगा. उस समय रात के १२:२० हो रहे थे. कुछ देर चलने के बाद मुझे लगा की मैं रास्ता भूल गया हूँ. अब मेरे हाथ पैर कांपने लगे और साँस तो जैसे रुक ही गयी हो. कुछ समझ में नहीं आ रहा था की अब मैं अब क्या करूँ. रात और गहरी काली हो रही थी. ठंडी हवा के झोकों से मेरे सारे रोएँ खड़े हो गये, दिल तो ऐसे धड़क रहा था जैसे की मानों आज कुछ अनहोनी होने वाली है. मैंने कुछ हिम्मत बांधी और बगल के एक घर में घुस गया. काफी देर तक वहीँ खड़ा रहा फिर यह सोंच कर घंटी दबा दी की अगर कोई निकला तो पता पूँछ लेंगे. अन्दर से कोई जवाब नहीं आया और ना ही दरवाजा खुला. में उदास हो गया और लगा की अब सारी रात भटकते हुए ही गुजरेगी. फिर अचानक मेरे मन में विचार आया की हो सकता है की रात को कोई कुत्ते को शैर कराने निकला हो. मैं कुछ सोचे समझे बिना सीधा चलते चला गया. मेरी आँखों को विश्वास नहीं हो रहा था की ठीक मेरे सामने एक आदमी कुत्ते के साथ खड़ा हुआ था. अब क्या मैं उसकी तरफ तेजी से बड़ा और हांफते हुए उससे पता पूंछा. वो तुरंत बिना कुछ मुझसे पूछे, पता बताने लगा जैसे की वह मेरा ही इंतज़ार कर रहा हो.
थोड़ी देर वह व्यक्ति रुका फिर बोला मैं भी उधर जा रहा हूँ आप मेरे साथ आ जाओ. मैं उसकी बात का ना नहीं कर सका और और उसके साथ चलने लगा. उस व्यक्ति ने मुझे मेरे घर तक छोड़ा और फिर आगे निकल गया.
अब आप को मैं क्या कहूँ! उस दिन वह व्यक्ति मेरे लिए किसी भगवान से कम नहीं था या फिर भगवान ही थे जो मुझे मेरे किसी अच्छे  कर्म का फल देके चले गए.

Thursday, February 18, 2010

चरित्र

चरित्र हूँ 
अभी भी मैं पवित्र हूँ,
लगी नहीं किसी की हाय..
आज भी कौसिक हूँ 

नया है परिवेश....
बदल गया मेरा भेष,
कोई भी पोत ले मुझे..
मेरे हैं अनेक रूप,
तराजू में तौल लो 
या बना दो बाट,
बेंच दो किसी को 
या खरीद लो 
हैं बहुत खरीदार,

अब नहीं मैं पवित्र 
चखा गया कई बार 
पर आज भी हूँ शेष 
किसी ने ना लगाया 
मेरा सही भाव....
बस बिकता गया 
पहले घर में बिका 
अब बाहर कौड़ी में....

अब चरित्र नहीं चित्र हूँ,
लग गयी किसी की हाय,
हो गया मैं अपवित्र........

तेज प्रताप सिंह  








हिन्दी साहित्य और संस्कृति के लिए एक दाग

आज मैं जो कुछ भी लिखने जा रहा हूँ वह हिन्दी साहित्य और संस्कृति के लिए एक दाग है
मैं लखनऊ जाने के लिए काफी देर से विमान का इन्तजार कर रहा था की सहसा मेरी नजर बगल मैं बैठे एक व्यक्ति पर पड़ी.
उस व्यक्ति के हाथ में एक लैपटॉप था जिसपर वह भारतीय साहित्य और संस्कृति के बारे में एक रिपोर्ट तैयार कर रहा था.
उसी लेटर के कुछ हिस्से ......
टू,
दा हेड ऑफ़ वर्ल्ड हेरिठेज़ एंड कल्चर,
ओनली फॉर स्टाफ
(में यहाँ हिन्दी रूपांतर लिख रहा हूँ)
१-भारत में कोई भी कल्चरल अकादमी अन्तार्रस्त्रिये रूप से विकसित नहीं हैं .
२-भवन और पुस्तकालय भी अन्तार्रस्त्रिये मानक को पूरा नहीं करते .
३-सुरक्षा के नाम पर एक या दो व्यक्ति हैं जो की टाइम पर नहीं आते .
४-सबसे बड़ी समस्या रख रखाव और सफाई की है.
५-भारत को इस और काफी ध्यान देने की जरूत है .
फ्रॉम xxxxxx
बाद में यह जानकर आप को और भी आश्चर्य होगा की वह व्यक्ति अमेरिकेन अकादमी का था.
आज मेरा सवाल उन सब से है जो इन संस्थाओं से जुड़े है....
अगर यही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं जब हम अपनी संस्कृति को अपने ही हाथों से मार देंगे
और तब शायद गंगा जल भी ना मिले मोच्छ दिलाने के लिए.