Friday, January 1, 2010

समाज का दाग

जब चला मैं मंदिर के रास्ते,
लेकर फूल और बतासे ....
पर ये क्या ..
रोका किसी ने मुझको देकर आवाज,
दे दो बाबा बस मुछ्को आज !
मैं समझ पाया उसका राग,
पर था समाज का दाग !
फिर सोचा मैंने ..........
बनाया किसने इसको दाग,
जिसने माँगा ,
दे दो बाबा बस मुछ्को आज !
ये है हम सब की भूल ,
जनसँख्या है इसका मूल ,
रोको इसको अभी और आज ...
नहीं तो बनते जाएँगे यूँ ही लाखो दाग,
और रोकेंगे .....
देकर तुमको ही आवाज

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