Sunday, January 24, 2010

मैं और नहीं देख सकता

बारिस से भीगा वह मकान कुछ कहने को आतुर है
बारिस के बाद की धूप 
उसके उपरी हिस्से को वसीभूत कर रही हैं 
पीछे का हिस्सा इमली और बेल की 
छाव में आराम कर रहा है 
दाहिना कोना अपनी पुरानी याद में खोया है 
तो बायां जैसे कुछ बोलना चाहता है  
प्रवेश द्वार पर एक पत्थर की शिला है 
जिसपर तिरंगा लहराना चाहता है 
बारिस से भीगा वह मकान कुछ कहने को आतुर है 
सबकुछ देखा है मैंने 
यहीं आजादी की दीवाने आया करते थे 
कभी वंदेमातरम तो कभी हिन्दुस्तान हमारा है 
के नारे गूजते थे 
रक्त की एक-एक बूँद को महसूस किया है मैंने 
उधर रसोईं में भोजन पकता था 
इधर बैठके में आजादी की कसम ली जाती थी 
हिन्दुस्तान हमारा है 
हम इसे लेकर रहेंगे 
सिचेंगे हम इसे अपने खून से 
रक्त का हर कतरा है देश का
देश ही माता और पिता...
गुरु और ईस्वर भी देश,
देश हमें जान से प्यारा  है 
हिन्दुस्तान हमारा है 
हिन्दुस्तान हमारा है 
रो रहा हूँ मैं आज अपनी इस हालत पर 
कोई नहीं है जो मुझे पूछे, मेरा देखभाल करे 
बारिस से भीगा वह मकान कुछ कहने को आतुर है 
ये हाल सिर्फ मेरा ही नहीं और भी हैं मेरे साथ 
बल्कि मुझे लगता है पूरे देश का यही हाल है 
मैं नहीं देख सकता और........ 
मार दो मेरे सीने पर खंजर 
बह जाने दो मेरे सारे रक्त को 
मिल जाने दो उन दीवानों के रक्त में 
मैं और नहीं देख सकता!!!!
मैं और नहीं देख सकता...
बारिस से भीगा वह मकान कुछ कहने को आतुर है




Monday, January 11, 2010

मेरा क्या है

मेरा क्या है 
बचपन की चंचलता माँ के लिए
विद्यार्थी जीवन गुरु को समर्पित
वयस्क हूँ प्रेमिका के सृंगार कृत
वृद्ध बनुंगा ईस्वर की भक्ति के लिए 
मेरा क्या है 


सीस माता-पिता, गुरु के सम्मान के लिए
शारीर का कर्त्यव दूसरों की सेवा है
पौरुष और वीरता करेंगे नारी की रक्छा
नेत्र प्रकृति और सत्य दर्शन के लिए
मेरा क्या है


छमा और करुणा शत्रु के लिए 
प्यार जीवनसंगिनी को  समर्पित
भविष्य को मिलेगीं हस्त रेखाएं  
इच्छा मन की तृप्ति के लिए
मेरा क्या है 
 
सदाचार और सन्स्कार पुत्र के लिए
सहयोग हमेशा मित्र के साथ 
अतिथि को मिलेगा आदर और सत्कार
ज्ञान और चिन्तन साहित्य को समर्पित
बचा प्राण जो यमराज के लिए 
मेरा क्या है 

Saturday, January 9, 2010

पिछले सावन का दर्द

सावन को आने दो पूछेंगे उससे
क्या तुम्हें मेरे दर्द का ख्याल न रहा.......

वो भी पल थे जब वो साथ थे तुम साथ थे,
सारे लमहे अपने थे उनकी हर बात महकती थी,
हवा भी उनके साथ चलती थी,
और तुम ही इशारे से उनके आने की खबर दिया करते थे...
आज ना ही वो लमहे अपने रहे;
ना ही तुमने उनके आने की खबर दी.....
बस हम तुम अकेले रह गए !!!!!!!

मैं उनके चेहरे से बालों को हटाता,
फिर धीरे से अधर को अधर के समीप लाता...
उनकी झुकी पलकों के उठने का इन्तजार करता!
इतने में तुम मुझे उनके आंचल से हवा देते...
और वो मेरे और करीब जाते......
इशारे-इशारे मैं दिल के सारे हाल बयां हो जाते थे;
आज ना वो मेरे करीब हैं,
ना ही तुमने उनके आंचल से हवा दी....
बस हम तुम अकेले रह गए !!!!!!!

जब वो मेरे कंधे पर अपना सिर रखकर सो जाते,
तब तुम अपनी ठंडी हवा से उनको जगा देते थे...
बातों-बातों में वो मुझे अधर चुम्बन देते,
फिर किसी बात की उलाहना देकर रोने लगते!
मैं चुप रहकर उनकी हर
अदायें देखता.....
और तुम्हारे ही सहारे उनकी हाँ मैं हाँ मिलाता,
आज
ना ही वो अदायें हैं,
ना ही वो
ठंडी हवा.....
बस हम तुम अकेले रह गए !!!!!!!

सावन को आने दो पूछेंगे उससे
क्या तुम्हें मेरे दर्द का ख्याल न रहा.......


Friday, January 8, 2010

हैरान हूँ मैं शब्द की मार से...

हैरान हूँ मैं शब्द की मार से.....
तोड़ता हूँ मरोड़ता हूँ शब्द को,
शब्द की राह और उसकी शाज को!
निकालता हूँ और सुनता हूँ शब्द को,
बिखेरता हूँ और पकड़ता हूँ शब्द को॥
शब्द ही बनाते हैं धुन और सरगम,
जोड़ते और तोड़ते भी हैं दिल! ये शब्द ...
हैरान हूँ मैं शब्द की मार से.....

प्रेम से नहलाता हूँ शब्द को,
और आंसू पोछता हूँ शब्द से...
रूप और वात्सल्य में नाचते हैं शब्द,
शब्द ही करते हैं महिमा यौवन की॥
उठा कर मारता हूँ शब्द से...
शब्द को ही बनाता हूँ हथियार,
ह्रदय वेदना भी देते हैं ! ये शब्द...
हैरान हूँ मैं शब्द की मार से .....

छिपा देता हूँ शब्द को कंठ में,
एक नहीं बार-बार तौलता हूँ शब्द को...
हाथ में लेकर प्यार से सहलाता हूँ शब्द को,
फिर धीरे-धीरे बांटता हूँ शब्द को

शब्द ही देते हैं ज्ञान और सम्मान,
राजनीत भी करते हैं शब्द...
निपुण हैं अपनी हर योग्यता में! ये शब्द
हैरान हूँ मैं शब्द की मार से .....




मैं कौन हूँ

मैं कौन हूँ...
अभेद, अविराम तटिनी का वेग
सयंम और परोपकार का सयोंग

अभिन्य, अतुल्य पौरूष का सम्भोग
मर्यादा और पुरुषोत्‍तम का योग
मैं कौन हूँ....

हनहनाद, हाहाकार युद्ध का परिणाम
छमा और शील का मनोकाम
वीर, अजीत राजा का प्रणाम
आवश्यकता और महत्व का अल्पविराम
मैं कौन हूँ....

अमरत्वा, अजेय का वरदान
सुख और समृधि का धनवान
सात्विक, तपस्वी महात्मा का ज्ञान
आत्म निर्भरता और सत्यवादिता का सम्मान
मैं कौन हूँ....

हर्दय, मस्तिष्क का विचार
प्रेम और स्पर्श का धराधर
निर्मल, सुन्दर वनिता का प्यार
प्रभा और संवदेना का संसार
मैं कौन हूँ....






Monday, January 4, 2010

इच्छा

इच्छा है कुछ प्राप्ति की,
धरती से गगन पर अवतरित होने की..

उखाड़ फेंकू तिमिर को,
बन जाऊं मयंक की ज्योत्सना
अगनी को करूँ अलंकृत
पुरस्कृत करूँ देवराज के रूप को
भार्या कहलाऊं हनुमान की
और मूल्य जीवन की ,

अभिशाप का बन जाऊं वरदान,
फल मिले बिना परिश्रम के.......
पिघला दूँ रेत की गर्मीं,
शाज बन जाऊं संगीत की
और चादर मौत की,

पुस्तक की भाषा बनूँ ,
परोसूं भोजन का स्वाद...
चिंता बनूँ बिना कारण
एहसास किसी मदिरा शेवन की,
और नीर मीन की....

इच्छा है कुछ प्राप्ति की,
धरती से गगन पर अवतरित होने की

तेज प्रताप सिंह
३/१/२०१०




Saturday, January 2, 2010

मेरी दुल्हन २०१०

आशा है एक नए उमंग की,
तरंग और उसके संवेग की
घूँघट उठाती दुल्हन २०१०...
और उसके स्पर्श की
मेरी
दुल्हन २०१०
आपका मेरे इस अरमानो,
के सदन मैं स्वागत.....

विचारों के महक से पूर्ण,
घोटक जैसी गति........
सरिता की धुन मैं मधुर !!
श्यामा जैसी वाणी,
और गिरा का भेद है...
मेरा ये सदन...

आशा है कुसुम की महक से,
सुशोभित करेंगी आप.......
मेरे इस सदन को,
और रखेंगी सम्हाल कर,
एक और रावण, कंस, ईस्ट इंडिया
और मुंबई से.........


तेज प्रताप सिंह

Friday, January 1, 2010

मेरी बाला

प्रतिबिम्ब की तरह स्वछ,
स्वप्न जैसी निर्मल,
सुगंध पुष्प की!!
चन्चलता स्वर्ग की अप्सरा जैसी.....
और सरसराहट रात के अँधेरे जैसी,
आवेग़ और संवेग मैं निपुड,
अमूल धरोहर है ....
मेरे मन की बाला !

पुष्प देख किसी उपवन के,
अन्कुठित हो जाती बाला॥
मनोरंजन बरसाती बाला,
करताला....................
मेरी बाला !

स्वाभाव में सुंदरी की सुन्दर काया
भक्ति मैं ईस्वर की माला,
वीर पुरुष का साहस.........
अगनी की तपस,
विद्या मैं सरस्वती जैसी,
और संगीत में नारद मुनि...
अटखेलियां करती बाला,
करताला..............
मेरी बाला

उपलब्धियों का विज्ञान ,
यमराज की मौत...
अस्थि का भस्म,
सतिव्र्ता में सीता और अहिल्या जैसी,
लालिमा में सुबह के सूरज जैसी....
तेज फैलती बाला,
करताला.................
मेरी बाला
बाला


समाज का दाग

जब चला मैं मंदिर के रास्ते,
लेकर फूल और बतासे ....
पर ये क्या ..
रोका किसी ने मुझको देकर आवाज,
दे दो बाबा बस मुछ्को आज !
मैं समझ पाया उसका राग,
पर था समाज का दाग !
फिर सोचा मैंने ..........
बनाया किसने इसको दाग,
जिसने माँगा ,
दे दो बाबा बस मुछ्को आज !
ये है हम सब की भूल ,
जनसँख्या है इसका मूल ,
रोको इसको अभी और आज ...
नहीं तो बनते जाएँगे यूँ ही लाखो दाग,
और रोकेंगे .....
देकर तुमको ही आवाज